Saturday, October 11, 2025

दूसरा जीवन

दूसरा जीवन
— सरण राई

आज उस महाभूकंप को आए चार साल हो गए। याद आता है वह दिन — जब हजारों लोगों की जान गई थी और लाखों लोग बेघर हो गए थे। उन्हीं बेघर लोगों में से एक थी रजनी — जिसका रोता हुआ चेहरा मैं कभी नहीं भूल सकता।

ऊपर से पहाड़ टूटकर उसके घर पर गिरा था। उसके पति, सास–ससुर और छोटे बच्चे सब मारे गए थे। वह अकेली बची थी क्योंकि उस दिन वह जंगल में घास काटने गई थी।
घर और परिवार खो देने के बाद वह विक्षिप्त हो गई थी, शोक और भटकाव के भँवर में फँसकर उसने गाँव छोड़ दिया था।

भूकंप ने मेरा भी घर और खेत उजाड़ दिया था, इसलिए मैं भी रोज़ी–रोटी की तलाश में परदेश चला गया था।

भले ही न सोचूँ, पर उस महाविनाशकारी दिन का असहनीय दर्द फिर–फिर उभर आता है।
उसी पीड़ा में डूबा एक दिन मैं एक दंपत्ति को देखता हूँ — वे अपनी गोद में एक छोटा बच्चा लिए आ रहे थे।

वह औरत... क्या वह रजनी नहीं है?
मैं पास जाकर ध्यान से देखता हूँ — हाँ, वही है!
अनायास मेरे मुँह से निकलता है — “रजनी बहिनी...!”

दोनों मेरी ओर देखते हैं।
आख़िरकार, पति जवाब देता है — “वह रजनी नहीं, उजेली है। ढाई साल हो गए हमारे विवाह को, और यह हमारा बेटा है।”

रजनी, यानी उजेली, मुझे ध्यान से देखती है, पर उसका चेहरा भावशून्य है।

उसी क्षण से मेरी भी सारी पीड़ा, चिंता और शोक जैसे मिट जाते हैं — और लगता है, मेरा भी दूसरा जीवन शुरू हो गया है।

जीवन जिया जा सकता है — हज़ारों–हज़ार रूपों में...!!!

 

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